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सिंहदेव के दोबारा अध्यक्ष बनने की कहानी दिलचस्प, ऐसी हवा चली कि मंत्री बनते बनते रह गए...

 





 रायपुर। जो जानकारी आ रही है, उसके अनुसार किरण सिंहदेव मंत्री बनते बनते एक बार फिर प्रदेश अध्यक्ष बन गए बीजेपी में अंदरूनी हाई लेवल पॉलिटिक्स के बाद आश्चर्यजनक रूप से किरण सिंहदेव को फिर से प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया है। हालांकि अध्यक्ष के लिए पर्चा दाखिल करने वालों में किरण सिंहदेव भी शामिल थे।


 वास्तविकता यह बताई जा रही है कि उन्हें अध्यक्ष बनाया गया है। बनाया इसलिए, क्योंकि वे इस पद पर रहना नहीं चाहते थे। मतलब यह है कि जो हुआ, उसके लिए जाहिर तौर पर किरण तैयार नहीं होंगे। क्योंकि, कहा ये जा रहा था कि वे मंत्री बन रहे हैं। इसके पहले अध्यक्ष के लिए बिल्हा विधायक धरम कौशिक सहित कुछ और वरिष्ठ नेताओं का नाम भी चला था, पर ताजपोशी हुई सिंहदेव की।

पिछले एक महीने से यह चर्चा थी कि किरण सिंहदेव पार्टी अध्यक्ष के पद पर नहीं रहना चाहते। वे विष्णुदेव साय कैबिनेट में शामिल होना चाहते हैं। 30 दिसंबर के बाद तो उनके समर्थक दावा करने लगे थे कि कि सिंहदेव के मंत्री बनने बनने में अब कोई संशय नहीं रह गया है।


हालांकि, जानकारों का कहना है कि किरण का नाम आगे बढ़ाकर मंत्रिमंडल के विस्तार में पेंच फंसाया गया। उसके बाद तय किया गया कि मंत्रिमंडल के विस्तार से पहले अध्यक्ष का फैसला हो जाए।

इसके लिए पिछले हफ्ते राष्ट्रीय संगठन मंत्री शिवप्रकाश, प्रदेश प्रभारी नीतिन नबीन और क्षेत्रीय संगठन मंत्री अजय जामवाल की मौजूदगी में देर रात इस पर विचार किया गया कि किरण सिंहदेव की जगह नया अध्यक्ष किसे बनाया जाएगा। पर, यह आखिर तक इस पर एक राय नहीं बन पाया कि किरण के विकल्प के तौर पर किसे चुना जाए।


विचार के बाद सिंहदेव का ही नाम फिर आगे आया


बताया जा रहा है कि संगठन के कुछ नेताओं ने किरण सिंहदेव का नाम आगे बढ़ाया था। जिस तरह छत्तीसगढ़ के सांसदों की दावेदारी कम करने और डिप्टी सीएम अरुण साव का प्रभाव कम करने तोखन साहू को केंद्रीय राज्य मंत्री बनाने नाम रिकमंड किया गया था, उसी तरह का सियासी खेला करते हुए किरण सिंहदेव को आगे किया गया।


ना ना, हां हां की राजनीति


माना जा रहा था कि किरण सिंहदेव के नाम पर ही मंत्रिमंडल का विस्तार टाला गया। वरना, 25 दिसंबर के पहले दो नए मंत्रियों का शपथ हो गया होता।

छत्तीसगढ़ में बीजेपी की सियासी बिसात पर हाथी से सीधे वजीर को निशाना बनाने का प्रयास किया जा रहा था, मगर इसकी भनक पार्टी के शीर्ष नेताओं को लग गई। और दो दिन के भीतर ऐसे हालात बने कि किरण सिंहदेव को न चाहते हुए भी फिर से उसी पद को स्वीकार करना पड़ गया, जिसको लेकर वे ना-ना कर रहे थे। सिंहदेव के सामने मंत्री पद आकर निकल गया। हालांकि इसमें किरण सिंहदेव की चूक भी बताई जा रही है। कुछ दिनों से वे खुद भी यह स्वीकार करने लगे थे कि प्रदेश अध्यक्ष पद में उनकी रुचि नहीं है।उन्होंने कभी इसका खंडन भी नहीं किया कि मंत्री पद के लिए वे इच्छुक नहीं।मैसेज यह जा रहा था कि जैसा वे चाह रहे, पार्टी में वैसा ही हो रहा है। मगर बीजेपी की सियासत में इस तरह की बातें स्वीकार नहीं की जाती।


सहज सरल सिंहदेव उलझ गए दांव पेंच में?


जगदलपुर के लोकप्रिय महापौर से विधायक और प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी तक पहुंचे किरण सिंहदेव की छबि सहज और सरल नेता की है। बस्तर में उनके पास समर्थकों का एक बड़ा वर्ग है। प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने दौरे भी खूब किए।

ये जरूर है कि वे अपने दौरे और कार्यक्रमों को सोशल मीडिया में प्रचारित नहीं करते। मगर उनके करीबियों का कहना है कि यही सहजता उन्हें भारी पड़ गई। वे गुटीय राजनीति के आसान मोहरा बन गए। सियासी गुणा-भाग के तहत संगठन के नेताओं ने उनके नाम को आगे बढ़ाया और फिर अंजाम तक पहुंचा भी नहीं पाए। शीर्ष नेतृत्व ने बीच सफर में गाड़ी की हवा निकाल दी। सत्ताधारी पार्टी के अध्यक्ष का वो रुतबा नहीं रहता, जो विरोधी पार्टी के प्रमुख का होता है। मुख्यमंत्री तो बड़ी बात हो गई, मंत्रियों का तामझाम रुलिंग पार्टी के प्रदेश अध्यक्षो को कचोटता है। इसलिए, अधिकांश प्रदेश अध्यक्षों की दिलचस्पी मंत्री बनने में होती है कि कम-से-कम अपने विभाग के तो वे सर्वेसर्वा होते हैं।

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